प्रतीकों पर राजनीति-महानायकों के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए सियासी धारा में शक्ति होनी चाहिए

राजनीतिक महानायकों की स्मृतियों का प्रभावी होना इस बात पर निर्भर करता है कि करता है कि उनके विचारों को आगे विचारों को आगे बढ़ाने वाली राजनीतिक धारा की शक्ति कितनी प्रभावी है। साथ ही यह भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है कि उक्त राजनीतिक धारा को उस नायक की स्मति एवं विरासत की उस वक्त कितनी जरूरत है। अक्सर यह देखने को भी मिलता है कि कोई राजनीतिक नायक अपने जीवनकाल में जितना महत्वपूर्ण नहीं होता, वह बाद में कई गुना प्रभावी हो जाता है। बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर के मामले में ऐसा ही हुआ है। अपने जीवन काल में वह एक यथार्थ बने रहे और उसके उपरांत एक मिथक में तब्दील हो गए जो उनके यथार्थ वाले प्रभाव को बढ़ाता गया। जीवनपर्यंत किए कार्यों के कारण ही कालांतर में वह दलित मुक्ति के प्रतीक में परिवर्तित होते गए। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि महाराष्ट्र और देश के अन्य भागों में उनके जीवनकाल में ही लामबंद समर्थकों एवं अनुयायियों का एक वर्ग तो तैयार हो ही गया था। उनके निधन के पश्चात भी दलित समर्थक राजनीतिक दल रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया यानी आरपीआइ उनके विचारों को आगे बढ़ाती रही। हालांकि इस दौरान आरपीआइ का आधार खिसकता गया। इसकी भरपाई आजादी के बाद उभरे दलितों के शिक्षित वर्ग से हुई जो लोग शिक्षा प्राप्ति एवं अपने अधिकारों के लिए आंबेडकर अपने अधिनिया टोला के प्रतीक से अपने संघर्ष की प्रेरणा पाने लगे। इस प्रकार आंबेडकर के प्रतीक को नई ऊर्जा, नई शक्ति एवं नया जीवन मिला। उत्तर भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश में कांशीराम के नेतत्व में उभरे बहुजन दलित आंदोलन, जिसने आगे चलकर बहुजन समाज पार्टी यानी बसपा का रूप अख्तियार किया, ने आंबेडकर के प्रतीक को और शक्तिशाली बनाया। कांशीराम और या। कांशीराम और मायावती के नेतृत्व में पिछली सदी के नौवें दशक में उभरे बहुजन दलित उभर बहुजन दालत आंदोलन के तहत दलितों की राजनीतिक गोलबंदी की गति तेज हुई। फलत- उत्तर भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश में आंबेडकर का प्रतीक और ताकतवर बनकर उभरा। इस व्यापक उभार में इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि उत्तर भारत खासतौर से उत्तर प्रदेश में बहुजन सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन ने भी इसे धार देने का काम किया। इस जुगलबंदी से आंबेडकर दलितों के निर्विवाद महानायक के रूप में स्थापित होते गए। इससे यही आशय है कि राजनीतिक नायकों के नायकत्व का विकास उनकी विचारधारा के प्रतिनिधियों की राजनीतिक शक्ति एवं संबंधित विमर्श में उन्हें दी जाने वाली जगह पर निर्भर करता है। डॉ. राममनोहर लोहिया, पंडित नेहरू के बाद दूसरे राजनीतिक नायक टोला थे। उनका नायकत्व तो उभरा, किंतु भारतीय समाज में पिछड़े वर्ग के समूहों के राजनीतिक सशक्तीकरण, भागीदारी और विकास के लिए किए गए अनेक कार्यों के बावजद वह आंबेडकर जैसा मुकाम हासिल नहीं कर पाए। इसका मूल कारण यह है कि समाजवादी आंदोलन से उभरे सामाजिक समूहों एवं राजनीतिक दलों ने अपने विमर्श को इस प्रकार आकार नहीं दिया जिसमें इस प्रकार आकार नहीं दिया जिसमें लोहिया का नायकत्व विकसित हो पाएयह ठाक ह समाजवादा सरकारा पाए। यह ठीक है समाजवादी सरकारों ने तमाम संस्थाओं-स्थानों को लोहिया -स्थानों को लोहिया का नाम दिया, परंतु उन्होंने इस प्रतीक को और शक्तिशाली बनाने के पर्याप्त प्रयास नहीं किए। कहने का अर्थ है कि समाजवादी विचारधारा से उभरे दलों ने सत्ता और ताकत हासिल करने के बावजूद अपने विमर्श को इस प्रकार नियोजित नहीं किया जिससे समाजवादी विचारधारा का महिमामंडन होने के साथ ही लोहिया का नायकत्व भी उभर सके। अगर तुलना करें तो आंबेडकर ने दलितों के लिए जो किया, बिल्कुल वही काम लोहिया ने पिछड़ों को सशक्त बनाने के लिए किया। कुछ ऐसा ही जयप्रकाश नारायण के साथ हुआ। जेपी आंदोलन से निकलकर तमाम नेता राजनीति के आकाश पर तो खूब चमके, लेकिन उन्होंने जेपी को वैचारिक स्मृति का प्रेरक तत्व बनाकर अपना कोई विशिष्ट राजनीतिक विमर्श विकसित नहीं किया। वर्ष 2014 के बाद भाजपा के शक्तिशाली होने के बाद डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय जैसे राजनीतिक प्रतीकों का महत्व बढ़ा है। इसके पूर्व इन प्रतीकों के बारे में शायद लोग ज्यादा नहीं जानते थे। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि भाजपा ने अपने राजनीतिक विमर्श के मूल तत्वों में इनके विचारों विमर्श के मूल तत्वों में इनके विचारों को शामिल किया। इसी तरह मदनमोहन मालवीय की इसा तरह मदनमोहन मालवीय को गिनती आजादी के पहले दिग्गज कांग्रेस गिनती आजादी के पहले दिग्गज कांग्रेस नेताओं में हुआ करती थी, किंतु वर्ष 2014 में भाजपा के सत्ता में आने एवं नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मालवीय और सरदार वल्लभभाई पटेल का नायकत्व ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि भाजपा ने कांग्रेस के ही उन प्रतीकों को अपनाया जिनकी कांग्रेस की पहली पांत के प्रतीकों के आगे अमूमन अनदेखी की गई। भाजपा ने पटेल और मालवीय जैसे कांग्रेसी प्रतीकों को कांफ्रेंस के शीर्ष प्रतीकों के समानांतर खड़ा करने का प्रयास कर राजनीतिक प्रतीकवाद के मोर्चे पर अपनी शक्ति का दायरा बढ़ लिया।